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“..महिलाएँ ही थीं जिन्होंने टोकरियों की बुनाई करके और मिट्टी के बर्तन गढ़कर सबसे पहले कंटेनर बनाए… खेती और घरेलू विकास के इस लम्बे समयकाल के बिना भोजन और श्रमशक्ति इतने आधिक्य में उपलब्ध नहीं हो पाता कि शहरी जीवन संभव हो सके।”
– लेविस ममफोर्ड (द सिटी इन हिस्ट्री, पन्ना 12)
दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में हो रही खेती में बड़ी तादाद में महिलाएँ भिन्न-भिन्न भूमिकाओं में सक्रिय हैं । महिलाएँ किसान तो हैं ही लेकिन खेतिहर मजदूरों और चरवाहों में भी हमने महिलाओं की अच्छी-खासी संख्या देखी । इसके अलावा हाट-बाजारों में भी फल-सब्जियाँ बेचती महिलाएँ मिल जाएँगी । इस तरह दिल्ली के भोजन तंत्र में महिलाओं की अहम भूमिका है । लेकिन ऐसा नहीं है कि सभी महिलाओं के अनुभव और विचार एक जैसे हैं । हमें अलग-अलग जगहों पर और अलग-अलग समुदायों की महिलाओं के साथ बात करने पर शहरी खेती की जीवंत विविधता समझ में आई।
वैसे दुनिया के ज्यादातर इलाकों में शहरी खेती के कामों में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों से ज्यादा देखी गयी है । अमूमन खेती (न सिर्फ शहरी खेती) में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी रहती ही है । संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि संस्थान (Food and Agricultural Organisation) के आँकड़ों के मुताबिक दुनिया भर में खेत में काम करने वालों में 43% महिलाएँ हैं (स्रोत: खाद्य एवं सुरक्षा संस्थान).
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