परिदृश्य से अदृश्य होती खेती: दिल्ली में शहरी खेती पर एक अध्ययन
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सामने से दिल्ली का एक चेहरा दिखता है। लेकिन इस शहर को परत-दर-परत उधेड़ने पर कई और तस्वीरें दिखने लगती हैं। उन्हीं में से एक है शहरी कृषि शहर जिसका आधुनिक शहरी अवधारणा में कोई कानूनी और नीतिगत स्थान नहीं है। इसीलिए शहरीकरण के दौरान इसे बाहर करके कानूनन बंदिश लगा दी जाती है। दिल्ली में इस अवधारणा को मूर्त रूप देने के लिए दिल्ली विकास प्राधिकरण की स्थापना की गई है, जो यहां के गांव की जमीन को दिल्ली मास्टर प्लान के तहत अधिग्रहण करके शहरीकृत घोषित कर देता है। इस वजह से भूमि का उपयोग कृषि और उससे जुड़ी गतिविधियों से बदल कर शहरी उद्यम के लिए हो जाता है। परिदृश्य से अदृश्य होते शहरी कृषि के कारण सिर्फ भूमि का उपयोग ही नहीं बदलता है, बल्कि व्यक्तिगत और सामुदायिक ज्ञान-परंपरा अप्रासंगिक हो जाती है। ऐसी हालत में शहर में कृषि की जानकारी और राजनैतिक-सामाजिक चर्चा का हाशिए की ओर चले जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
इतनी बंदिशें और कानूनी अवरोधों के बावजूद आज दिल्ली में अलग-अलग विधियों से बड़े पैमाने पर खेती हो रही है। परम्परागत किसानों के साथ-साथ नये और आधुनिक संस्थानों से शिक्षित युवा नई सूझ-बूझ और पूरी लगन के साथ कृषि कार्य में लगे हैं। वे किसानी को परंपरागत लीक से निकाल कर आधुनिक तकनीक और नई मांग के अनुरूप फसल लगाते और उपजाते हैं। उनके पास आधुनिक कृषि मंडी कभी खुद चलकर आती है और कभी वे इस मंडी तक खुद भी जाते हैं।
दिल्ली से यमुना नदी गुजरती है और यह नदी जहरीले और काले पानी की वजह से हमेशा सुर्खियों में रहती है। लेकिन इस नदी का एक अदृश्य और अनजान पक्ष भी है, वह है कृषि से इसका ऐतिहासिक रिश्ता। इस नदी के दोनों किनारों के सपाट मैदान जैविक ऊर्जा से भरे-पूरे हैं, जहां हर प्रकार की भरपूर फसलें उगाई जाती हैं। दिल्ली में नदी का एक छोर उत्तर में हरियाणा की ओर से पल्ला गांव है तो दूसरी छोर जैतपुर गांव। पूर्व दक्षिण में यह उत्तर प्रदेश के गौतम बुद्धनगर को छूती है। यमुना नदी जल-कृषि का स्रोत है और इस कृषि से मलाह समुदाय का मजबूत नाता है।
दिल्ली में शहरी कृषि का एक और वर्ग है, जिसे दिल्ली विकास प्राधिकरण ने कानूनी कवच दिया है। शहर के राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक और बौद्धिक रूप से संपन्न लोगों को यह सुविधा भूमि-उपयोग की एक अलग श्रेणी बनाकर दी गई है, जिसे फार्महाउस कहा जाता है। फार्महाउस के स्वामी को एक खास हिस्से में कृषि कार्य करने की छूट दी गई है । इसके अंदर सरकार के कायदे-कानून नहीं चलकर, इनकी सुविधा और सरलता के अनुसार नियमन में छूट दी जाती रही है। अलग-अलग आय वर्ग के लोगों के बीच अब एक नई सत्संगी संस्कृति विकसित हो रही है। इस संस्कृति ने लोगों को प्रकृति की ओर उन्मुख किया है। इसकी वजह से अब टेरस फार्मिंग, रूफटाॅप फार्मिंग, फ्रंटयार्ड-बैक यार्ड गार्डेनिंग का चलन बढा है।
जिन्हें आधुनिक परिभाषा में अकुशल और अशिक्षित कहा जाता है, शहरी कृषि उन्हें बेहतर अवसर दे रही है और आत्मविश्वास भी। इनकी मांग शहरी फार्मिंग के हर प्रयोग में है, इनमें स्त्री और पुरुष दोनों के परंपरागत हुनर का पुनः उपयोग और परिमार्जन हो रहा है। कहीं-कहीं तो इस समूह के लोग स्वयं किराये पर जमीन लेकर कृषिकार्य करते हैं। कहीं-कहीं हर वर्ष फसल-चक्र के अनुसार शहर आकर कृषिकार्य संपन्न करने में सहयोग करते हैं।
प्रकृति में कोई भी वस्तु कचरा नहीं होती। एक जैव-समूह का अवशिष्ट दूसरे जैव-समूह के लिए भोजन होता है। परंतु शहर से कृषि के निष्कासन ने शहरों में कचरे का पहाड़ पैदा कर दिया है। दिल्ली में ऐसे कई पहाड़ उग आए है जिन्हें जितना छोटा करने की कोशिश की जाती है, निरंतर बड़े ही होते जा रहे है। इस समस्या का निस्तारण खेती की अहमियत को फिर से स्थापित कर के ही संभव है।
पशुपालन कृषि कार्य का अभिन्न अंग है। एक खास योजना के तहत दिल्ली शहर के रहवासी इलाकों से पशुधन को निकालकर शहर के बाहर डेयरी फार्म में भेज दिया गया, ताकि शहर साफ और सुंदर दिख सके। लेकिन शहर के विस्तार के साथ डेयरी फार्म फिर से शहर के अंदर आ गए और समस्या कम होने की बजाय बढ़ती गई। कुछ लोग अपने शौक और साहचर्य के लिए कुत्ते और बिल्लियां पालते हैं, वहीं कुछ और लोग अपनी आर्थिक हालत को बनाए रखने के लिए बकरी, मुर्गा, बत्तख, कबूतर, सूअर और गदहा पालते हैं। सरकार इन दोनों गतिविधियों को कानूनी और गैर-कानूनी की मान्यता उनकी आर्थिक हैसियत के आधार पर देती है। यहां घोषित रूप से चारागाह तो नहीं हैं, लेकिन चरवाहे ओर घसियारे अपने पशुओं के लिए इसकी तलाश कर ही लेते हैं।
शहरी कृषि शहर को खाद्य सुरक्षा, साफ-सफाई, जलवायु-परिवर्तन, शहरी ऊर्जा और ढांचागत विकास जैसी अनगिनत चुनौतियों के समाधान का रास्ता दे सकती है तथा शहरीकरण की एक नई अवधारणा गढ़ने का मार्ग प्रशस्त कर सकती है।