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प्रोफेसर दिनेश मोहन, हमारे डीएम सर, ने सुबह आखिरी सांस ली. देश-दुनिया में कितने ही लोग, ताकतवर और मजलूम सभी, उनको जानते थे. लेकिन सुबह की खबर के बाद से सोचता जाता हूँ कि मैं कितना कम जान पाया, कितनी लापरवाही की जान पाने में. लेकिन उनका दायरा ही इतना बड़ा था कि कम वक्त में भी उनसे जो सुना, वो ज़िंदगी भर के लिए सीख लिया.
मौलिक चिंतन, आज़ाद ख़याली और एक फ़िक्रमंद आवाज़- हम उन्हें जैसे भी याद करें उनमें ये खुसूसियत हमेशा मिलेगी. उनसे बात करने में उनके न चाहते भी ये झलक जाता ही था कि हम एक इंस्टीट्यूशन से बात कर रहे हैं. ट्रैफिक सुरक्षा और शहरी परिवहन की योजना के बारे में प्रचलित तरीकों से अलग एक वैज्ञानिक, समूची सोच पैदा करने के लिए उन्होंने ट्रिप, आइआइटी दिल्ली की नींव रखी और उसको आकार दिया. सड़क पर कार वालों की बजाय पैदल, साइकिल और मोटरसाइकिल वालों की सुरक्षा को केंद्र में रखने की बात हो या दिल्ली मेट्रो की एक जन-सुलभ आलोचना हो- सत्ता और पूँजी की ताकत से आम लोगों में फैलाए जाने वाले मिथकों से लड़ने में विज्ञान और तकनीकी ज्ञान की ताकत कैसे काम आ सकती है, उनके बहुत से लेख इससे रूबरू करवाते हैं. सड़क पर दुर्घटना नहीं होती, टक्कर होती है जिसे वैज्ञानिक समझ और बेहतर सड़क डिजाईन के जरिये कम खतरनाक किया जा सकता है और एक ऐसा भी सिस्टम हो सकता है जिसमें सड़क पर कोई मौत न हो- जन स्वास्थ्य के नजरिये से ये एक ऐसी कल्पना जिसमें हम सबका विश्वास बनाया उन्होंने.
विएतनाम युद्ध के प्रतिरोध से लेकर कश्मीर, दिल्ली दंगों और अयोध्या के मसलों तक कई जनांदोलनों में न सिर्फ वो पूरी फुर्ती से शरीक रहे बल्कि उनमें अपनी मेहनत भी दी. एक ज़ाती वाक़या याद है कि जब पिछले साल जनवरी में जेएनयू में हुए हमलों के तुरंत बाद हमने अगली शाम को आइआइटी में पूरे शोर के साथ जुलूस निकाला तो डीएम साथ खड़े थे, हमसे भिड़ने आये लोगों को समझा कर अलग कर रहे थे और हमारा स्टेटमेंट मांगकर उन्होंने खुद तमाम अखबारों के एडिटर को ईमेल किया था. आइआइटी के सामने की सड़क पर जब डिवाईडर लगा दिया गया तो उन्होंने क्लास में पहले समझाया कि ये कैसे पैदल यात्रियों के सड़क अधिकार और जन सुरक्षा के लिहाज से खतरा है फिर स्टूडेंट्स पर एक तरह से तंज भी किया कि अगर उनके छात्र जीवन में ऐसा कुछ होता तो उन लोगों ने अब तक ये डिवाईडर तोड़कर किनारे कर दिया होता. कहाँ मिलेंगे ऐसे प्रोफेसर जो विज्ञान की बात करते हुए आपको एक जीवित राजनीतिक बेचैनी से भर दें.
उनके योगदान और उनके शोध के बारे में बात करने की हैसियत मुझमें नहीं है. उनके कई साथी और स्टूडेंट्स इस बारे में अच्छे से बता सकते हैं. उनकी एक टिप्पणी जिससे मैं चकित भी हुआ था और जो रह-रह कर ध्यान आती रहती है कि इंजीनियरिंग और प्लानिंग के स्कॉलर को सामाजिक विज्ञान पढ़ाने पर जोर नहीं देना चाहिए क्योंकि इससे न वो इंजीनियरिंग का ज्ञान ही इस्तेमाल कर पाते हैं और न ही सामाजिक विज्ञान. उनका आइडिया था अलग-अलग डिसिप्लिन की अच्छी समझ रखने वालों को एक साथ शोध के लिए लाना लेकिन उनके अनुभव में एक ही व्यक्ति की शिक्षा में कई डिसिप्लिन के ज्ञान को मिलाना अमूमन ठीक नतीजे नहीं देता. लेकिन हर व्यक्ति को अलग-अलग डिसिप्लिन से अवगत होना ही चाहिए, ये भी बहुत पुख्ता तौर से कहते थे. शोध और वैज्ञानिक अनुसंधान को बेहतर बनाने और इसके जरिये बेहतर दुनिया बनाने के प्रति उनकी लगन का अंदाजा इसी बात से लग सकता है कि वो कोविड के दौरान भी इस साल तक लगातार पंचशील पार्क में पाने घर से निकलकर आइआइटी दिल्ली में अपने ऑफिस आते रहे, लिखते रहे, फील्ड यात्राओं और सेमिनारों में जाते रहे और दुनिया का बारीक अवलोकन करते रहे.
डीएम सही मायने में एक रेडिकल थे. उन्होंने जिस भी विषय में रूचि ली उसकी जड़ में समस्या को पहचानने की कोशिश की और दूसरों को भी इस तरह की प्रॉब्लम-सॉल्विंग के लिए ही प्रेरित किया. लेकिन इतने इल्म और तजर्बे के बाद भी उनमें रूखापन नहीं था. मुझे याद है कि जब जनगणना के आँकड़ों का अध्ययन करके हमने रिपोर्ट निकाली थी तो उन्होंने उसके भीतर की चर्चाओं और निष्कर्षों को ध्यान से देखा और मुझे सुझाया था कि सांख्यिकी की कोर समझ विकसित किये बिना कोई भी रिग्रेशन मॉडल लगाकर डाटा का विश्लेषण कर देने के भीषण ख़तरे हैं. ट्रांसपोर्ट रिसर्च में ये आम हो चला है कि किसी भी तरह के क्वांटिटेटिव डाटा का इस्तेमाल करके अलग-अलग तरह के स्थापित सांख्यिकीय मॉडलों में फिट किया जाए और निष्कर्ष निकाले जायें. न जाने कितनी ही बार सेमिनारों में इस तरह के शोध को देख कर वो टिप्पणी देते रहे कि कंप्यूटर का इस्तेमाल आम हो जाने से मॉडलिंग एक ब्लैक बॉक्स जैसा बन गया है. शोधकर्ता कोई भी डाटा कंप्यूटर सॉफ्टवेर में फीड करें तो कोई न कोई उत्तर वो दे ही देता है. कहते थे ‘गार्बेज इन, गार्बेज आउट’. और इसके पैमाने की ओर इशारा करते हुए कहते थे कि जल्दी से जल्दी और ज्यादा से ज्यादा काम को प्रकाशित करने के दबाव में प्रतिष्ठित पियर-रिव्युड जर्नल में भी ऐसा अधकचरा शोध प्रकाशित हो रहा है.
जो शब्द वो सबसे ज्यादा इस्तेमाल करते थे उनमें ‘स्टुपिड’ और ‘टेरिबल’ मुझे याद आ रहे हैं और इनपर एक अपने किस्म का स्ट्रेस देकर बोलना भी. बेवकूफी को तो वो बहुत दूर से सूँघ सकते थे. पर नायाब ये बात थी कि वो बेवकूफी का मखौल बनाने की बजाय इस तरह से उस पर सवाल करते हुए एक सही समझ पेश करते थे कि वो एक सीखने-सिखाने की खुली प्रक्रिया बन जाती थी. इसीलिए शायद उनकी भारी-भरकम इंटेलेक्चुअल छवि न तो बोझिल होती थी, न ही डर पैदा करती थी- जैसा कि अन्यथा हमारी अकादमिक संस्कृति में आम बात है. एक दोस्त ने फोन पर कहा कि हम स्टूडेंट्स में से कई लोगों ने उनसे सीधे-सीधे कितनी बात की होगी लेकिन वो जो ऑफिस और कांफ्रेंस रूम में उनकी मौजूदगी से एक बढ़ावा और दिल को हौसला रहता था, उसका क्या होगा, वो शायद अब नहीं रहेगा.
किसी भी नयी सोच-समझ के विकसित होने के लिए सबसे बुनियादी जरुरत मानते थे मिलने-जुलने को. एक बार हम कुछ लोगों ने एक स्टूडेंट फोरम बना के उसकी पहली बैठक रखी जिसमें डीएम और प्रो. गीतम आये भी और दो-ढाई घंटे खुले दिल से चर्चा भी हुई. उसी में उन्होंने कहा कि आईआईटी के इतने समृद्ध समुदाय होने के बावजूद यहाँ एक ढंग की जगह नहीं है जहाँ खुले मन से बैठ कर स्टूडेंट और प्रोफेसर यूँ ही बात कर सकें.
उनकी भीतरी दुनिया की विविधता के बारे में सोचकर मुझे उनके बाहरी रंगरूप के कुछ पहलू हलके-फुल्के अंदाज में याद आते हैं जैसे कि वो हमेशा एक सफेद, साधारण कुर्ता पहनते थे लेकिन दाढ़ी स्टाइलिश रखते थे, और ज्यादातर उनको मैंने एक संजीदा चेहरा बनाये देखा लेकिन उसके पीछे वो अपने ख़ास मिज़ाज की हँसी छुपाये चलते थे जो इस फ़िराक में रहती थी कि कोई दिलचस्प बातचीत चले तो फौरन बाहर आ जाए. दूध वाली कॉफ़ी को दूध और कॉफ़ी दोनों की फिजूलखर्ची मानते थे. समुद्री बीच पर पानी में उतरने के आईडिया से ही चिढ़ थी उन्हें क्योंकि शरीर पर नमक लगाकर खुश्क कर लेना ‘स्टुपिडिटी’ थी. देश के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारों पर उनका एक बार कहना था कि अगर आइके गुजराल प्रधान मंत्री बन सकते हैं तो कोई भी बन सकता है. तंज़ानिया में एक कांफ्रेंस से लौटने के बाद उन्होंने मुझे फोटो दिखा कर बताया था कि वहाँ के छोटे कस्बे अपनी पारम्परिक जीवन शैली अपनाते हुए किस तरह साफ-सफाई बरतते हैं, और कैसे जाति व्यवस्था के कारण ये सेंस हमारे शहरों, कस्बों और गाँवों से गायब है.
आईआईटी जैसे ‘गैर-राजनीतिक’ संस्थान में ऐसा भी एक शख्स रहा जिससे जो भी मिला, जिसने भी उसे सुना, उसमें वैज्ञानिक चेतना के साथ राजनीतिक चेतना भी कुछ न कुछ बढ़ी ही. मैं इस बात के लिए तो मलाल रखूँगा कि उनसे सीखने के और मौके नहीं बनेंगे लेकिन उनकी शख्सियत के कतरे कई लोगों में बिखरे हैं और वो जिंदादिल, ज़िंदगी-पसंद प्रो दिनेश मोहन की हिम्मत को जिंदा रखेंगे.
– निशान्त
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प्रोफेसर मोहन के अनगिनत लेक्चर हैं जिन्हें सुना जाना चाहिए लेकिन स्मार्ट शहर के सन्दर्भ में बेहतर शहर, यातायात और तकनीक के रिश्ते पर इस छोटी-सी प्रस्तुति को साझा करने में अच्छा लग रहा है और ये जन संसाधन केंद्र के कार्यक्रमों की बुनियादी समझ बनाने में उनके योगदान की एक झलक भी देता है :
बढ़िया💐