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दिल्ली भारत के उन प्रदेशों में शामिल है, जहां खेती में मशीनीकरण की शुरुआत सबसे पहले हुई । इसके बावजूद आज भी कृषि में मजदूरों की जरूरत किसी न किसी स्तर पर होती ही है । आजादी के पहले दिल्ली के कृषि-कार्य में जो मजदूर लगते थे, वे स्थानीय हुआ करते थे। उनकी मजदूरी आमतौर पर अनाज में दी जाती थी, नगदी का प्रचलन नहीं था । आजादी के बाद देश के विभिन्न कोनों से लोग दिल्ली में आए हैं – उनमें से कुछ को कल-कारखानों में काम मिला है; कुछ को दुकानों में । दिल्ली में निर्माण-कार्य भी एक फलता-फूलता व्यवसाय है । इसमें भी बड़े पैमाने पर मजदूरों की मांग रही है । किंतु बेरोजगारी इतने बड़े पैमाने पर है कि विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों के पास नियमित काम नहीं है । इसलिए उन्हें जो काम मिल जाता है, वही काम वे कर लेते हैं ।
कुछ लोग कृषि-क्षेत्र में काम को प्रमुखता देते हैं, क्योंकि अपने गांव में भी वे कृषि-कर्म का एक हिस्सा रहे हैं। खेती के काम का हुनर उन्हें इस दिल्ली में भी आजीविका दिलाने में मदद करता है । दिल्ली में हमें ऐसा मजदूर मिलना लगभग असंभव है, जो केवल खेती पर निर्भर रहकर रोज-रोज काम पाता हो । खेती अधिकतर मजदूरों का आंशिक पेशा है । अपनी रोजी-रोटी को ज्यादा सुनिश्चित करने के लिए उसे अन्य पेशों के काम भी करने होते हैं ।
दिल्ली के आर्थिक सर्वे (2018-19) के मुताबिक दिल्ली में केवल 0.71% कामगार ही खेती के कामों में लगे हैं (दिल्ली का आर्थिक सर्वेक्षण, 2018-19). लेकिन अगर भारत की पिछली आम जनगणना के आँकड़ों को मानें तो दिल्ली में 1% कामगार 6 महीने से ज्यादा और करीब 3% कामगार 6 महीने से कम समय के लिए खेती करके ही आजीविका पाते हैं। जनगणना के मुताबिक ये पौध रोपने, पशु पालन, मछली पालन, और खेती से जुड़ी अन्य गतिविधियों में लगे हैं। ये अंतर मामूली लग सकता है लेकिन असल आबादी के तौर पर देखें तो ये अंतर हजारों का है।
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