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“शहरों की सफाई का बोझा कई नदी-तालाब ढो रहे हैं. मैले पानी से अटे जल स्रोतों में दुर्गन्ध है ऐसे समाज की, जो अपनी सुविधा के लिए किसी भी हद तक जा सकता है… जो अपने मैले पानी को साफ करने की कीमत चुकाने को तैयार नहीं है. जिसका सम्बन्ध अपने जल स्रोतों से केवल दोहन का है.” – सोपान जोशी (जल थल मल)
“मानव मल पैदा तो मिट्टी से ही होता है और आसानी से मिट्टी में वापस मिल सकता है, खासकर अगर खाद निर्माण प्रक्रिया के जरिये उसे ह्यूमस में तब्दील कर दिया जाए” – जोसफ जेंकिंस (द ह्यूमन्योर हैंडबुक)
शहरी समाज की पारिस्थितिक स्थिरता के लिए कचरे का प्रभावी प्रबंधन आवश्यक है। हमारे कचरे का एक बड़ा हिस्सा जैविक कचरा (जो कार्बनिक पदार्थ से बना होता है) रहता है जिसमें बचा-खुचा भोजन, पत्ते, खेती के अवशेष और मानव और पशुओं के मल-मूत्र शामिल हैं. इस जैविक कचरे में मौजूद नाइट्रोजन, पोटेशियम और फ़ॉस्फोरस खेती की मिट्टी के लिए फायदेमंद होते हैं इसलिए ये बहुत जरुरी है कि इन सभी को उस मिट्टी में वापस पहुँचाया जाए जहां से वे पैदा हुए थे और जहाँ उनका नैसर्गिक इस्तेमाल हो सके।
मानव मल-मूत्र को हीनता से देखने और मूल्यहीन समझने की बजाय उसे खेती के लिए लाभदायक पदार्थ के तौर पर देखा जाना चाहिए और उसका उपयोग मिट्टी को और उपजाऊ बनाने के लिए करना चाहिए। लेकिन फिलहाल तो शहरी आबादी के मल-मूत्र को खेती की जमीन में नहीं खपाया जा रहा है बल्कि सिर्फ फ्लश करके भुला दिया जा रहा है. ऐसा करने में बहुमूल्य उर्वरक तो बर्बाद किये ही जा रहे हैं, साथ ही साथ नदियों, नालियों के दूषित होने से शहरी पारिस्थितिकी और जन स्वास्थ्य के नजरिये से भी खतरे पैदा हो रहे हैं।
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